


हिन्दी दिवस के एक दिन पूर्व यह लेख लिखते हुए मन में अपार गर्व और आत्मगौरव का अनुभव हो रहा है। निसंदेह हिन्दी दुनिया की श्रेष्ठतम भाषाओं में एक है। हर भाषा का अपना आकर्षण है, लेकिन हिन्दी अनेक मायनों में अद्वितीय और अनुपम है। इसमें सागर जैसी गहराई है, अंबर जैसा विस्तार है और ज्योत्स्ना जैसी शीतलता है। हिन्दी केवल शब्दों का संग्रह नहीं, बल्कि मनोभावों और संवेदनाओं का सशक्त संप्रेषण है। इसकी समावेशी प्रकृति इसे और भी विशिष्ट बनाती है। संस्कृत के बाद यदि किसी भाषा में "आत्मतत्व" की वास्तविक और व्यवहारिक अभिव्यक्ति सम्भव है, तो वह केवल और केवल हिन्दी में ही है।
कल्पना कीजिए, यदि हिन्दी न होती तो क्या प्रेमचंद ग्रामीण परिवेश का इतना सजीव और आत्मीय चित्रण कर पाते? क्या बच्चन की "मधुशाला" किसी अन्य भाषा में वही मादकता घोल पाती? क्या पंत की कोमल और नाजुक कविताएँ किसी दूसरी भाषा में अपनी संवेदनशीलता के साथ सुरक्षित रह पातीं? क्या दिनकर की तेजस्विता, कवि प्रदीप के गीतों में राष्ट्रीयता का ज्वार, जायसी का आध्यात्मिक काव्य और तुलसी-कबीर-सूरदास की भक्ति की गंगा किसी और भाषा में प्रवाहित हो सकती थी? क्या "कामायनी" जैसा महाकाव्य या निराला की "राम की शक्ति पूजा" जैसी कालजयी रचना किसी अन्य भाषा से सम्भव थी? निश्चय ही इसका उत्तर "नहीं" के अलावा कुछ और नहीं हो सकता। ये तो केवल कुछ उदाहरण हैं, हिन्दी का साहित्यिक वैभव इससे कहीं अधिक व्यापक और गहन है।
हिन्दी का स्वरूप केवल साहित्य तक सीमित नहीं है। इसमें एक दिव्य आयाम भी है। हिन्दी में ही "ऊ" स्वर जब "चंद्रबिंदु" से मिलता है, तो "ओंकार" का जन्म होता है। संस्कृत के अलावा केवल हिन्दी ही वह भाषा है जिसमें ओंकार का यह दिव्य समावेश सम्भव है। यही कारण है कि हिन्दी को "शिवस्वरूपा" कहा जा सकता है। और यदि वह शिवस्वरूपा है, तो उसमें शक्ति का वास भी स्वाभाविक है। युगों-युगों से शक्ति सदैव शिव की सहचरी रही है, इसलिए हिन्दी भी हर कालखंड में कालजयी है—"साक्षात महाकाल"।
इतिहास भी हिन्दी की इस शक्ति का साक्षी है। विश्वविजेता सिकंदर ने भी हिन्दी की सामर्थ्य को पहचाना था। उसने अपनी डायरी में लिखा कि जिस देश की भाषा इतनी समृद्ध और सशक्त हो, उसे गुलाम बनाने का विचार भी मूर्खता से कम नहीं। यह प्रमाण है कि हिन्दी केवल साहित्य की नहीं, बल्कि सांस्कृतिक और राजनीतिक आत्मगौरव की भी आधारशिला है।
हिन्दी केवल भाषा नहीं, आत्मा की अभिव्यक्ति है। यह शिव है, यह शक्ति है, यह महाकाल है। यही कारण है कि हिन्दी आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी शताब्दियों पहले थी, और आने वाले युगों तक अपनी कालजयी आभा से मानवता को आलोकित करती रहेगी। हिन्दी दिवस की पूर्व संध्या पर आइए, हम सब न केवल हिन्दी बोलें और सीखें, बल्कि इसके सौन्दर्यबोध की अनुभूति सम्पूर्ण मानवता को कराएँ। हिन्दी केवल हमारे संवाद की भाषा नहीं, बल्कि हमारे अस्तित्व की आत्मा है।